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अनुभूति में डॉ. विजय शिंदे की रचनाएँ

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असुरों की गली में
बारिश थम गई
भविष्य के प्रति आशा

मजबूर हूँ

 

मजबूर हूँ

जब भी मैं सोचता हूँ,
पैसों की चिंता सताती है।
क्या मेरे पास सचमुच
रुपयों की कमी है?
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए,
रुपए काफी हैं।

परंतु रुपए खर्च करते समय,
माँ के
गाय, भैस के पीछे दौड़ते पाँव।
पिता जी के हाथों में,
मजदूरी करते लगे घाव।
फौज में बंदूक उठाता भाई,
भाभी, उनके बच्चे और पारिवारिक तनाव।
याद आते हैं
तब मुझ पर
खर्च होने वाले रुपयों की
चिंता सताती है।

जब भी सोचता हूँ,
पैसों की चिंता सताती है।
क्या मेरे पास रुपयों की सचमुच कमी है?
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए,
घर वालों की मेहनत काफी है।

लेकिन कब तक?... लेकिन कब तक?
पढाई के लिए
उनसे रुपयों की माँग करूँ?
अब तो मैं पच्चीस साल का घोड़ा हूँ।
फिर भी घर वालों से,
रुपए माँगने के लिए
मजबूर हूँ... मजबूर हूँ।

२१ अक्तूबर २०१३

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