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अनुभूति में यदु जोशी 'गढ़देशी' की
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दोगले चेहरे
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पहाड़ और मैं
रस्सियाँ
स्वेटर
समय

 

दोगले चेहरे

कौन नहीं चाहेगा
खुले आकाश में विचरण करना
धरती में रह कर खुली
साँस लेना
चाँद सितारों को
लपक लाना
कौन नहीं चाहेगा
और ललौहे सूरज के उगने तक
सपने बुनते रहना
हर कोई चाहता है!
किंतु चाहने से कुछ नहीं होता
प्रयास करने पड़ते हैं
मज़बूत इरादों से
दिल और दिमाग़ से
किंतु दोगले चेहरे
जब सामने आते हैं
हम घिघियाते हैं,
निरीह बकरे सा
मिमियाते हैं
दोगले चेहरे
बाहर से मुस्कराते हैं
और भीतर ही भीतर
ज़िंदा दफ़न करने की
तरकीब ढूंढ लेते हैं
और हम हाथ पर हाथ
धरे रह जाते हैं।

24 सितंबर 2007

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