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अनुभूति में दर्शवीर संधु की रचनाएँ—

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हक

 

हक

तपती धरती पर
भुने, कच्चे सपनों के फुल्लों पर
सिर्फ सफ़ेद बंदरों का हक है

बरसाती नाली में डूबी
अकेली कश्ती के कागज पर भी
बगावत का इलज़ाम होगा

सीली लकड़ियों से जलता
हर चूल्हा प्रदूषण की जड़ है
और उसपे पकता खाना
गंदगी का मूल (स्रोत)

नुची हड्डियों में बची जान
कठपुतलियों से ज्यादा
कुछ भी पैदा नहीं कर पाएगी

हर खुली आँख के बंद होने तक का
सारा इंतजाम मुकम्मल है
तुम्हें तो बस
मोहरें लगानी हैं

वैसे भी
चलती माहवारी में
बलात्कार के सबूत नहीं बचते

तुम पैर और हांडी
बचा के रखना

इन भोंकने वालों में
चाटने का ‘जीन’ भी होता है।

२५ अगस्त २०१४

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