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अनुभूति में सरोज उपरेती की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
गंगा और हमारी आस्था
बेटे का इन्तजार
मन मेरी नहीं सुनता
विदाई
वृद्धावस्था

 

 

 

 

गंगा और हमारी आस्था

भागीरथ के सतत प्रयास से
भागीरथी धरा पर आई
सदियों से जीवन दान दिया
पतित पावनी कहलाई

विष्णु पद से निकली गंगा
शिव जटा में समा गई
सगर पुत्रों का तारण करती
धारा प्रवाह बहती आई

जहाँ जहाँ से निकली सुरसरी
तीर्थ सब बन गए वहीँ
आज गंगा उदास है
जिम्मेवार हम कहीं ना कहीं

श्राद्ध हो या मुंडन
सब गंगा किनारे करते है
हवन की राख या पिंडदान
गंगा में बहा देते हैं

कहीं पर राख कहीं शव के टुकड़े
गंगा मैया, में बहाते जाते हैं
कहीं मल विसर्जन करते
कहीं वस्त्र धोते जाते हें

अस्थियों का विसर्जन करना
मल से गंगा को अपवित्र करना
हम धर्म के नाम करते जाते हें

क्या सतयुग द्वापर में लोग
ये सब कुछ करते होंगे
उत्तर किसी के पास नहीं
धर्म की आड़ ले गंगा को
गन्दा करते कहीं ना कहीं

कृशकाय हो चुकी हैं गंगा
स्वच्छ धवल इतनी ना रही
शहर की गंदगी, कूड़े के ढेरों से
विचलित होती सी चल रही

अगर नहीं सम्हले हम तो
सुरसरी हमसे रूठ जायेगी
अब तो भगीरथ भी नहीं
जिसके बुलाने से आयेगी

२४ जून २०१३

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