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शाम को...

“आज देर हो गयी फिर नौकरी पर”
तुम कहती हो, अपराधी सी,
खड़ी हो थकी-माँदी...
मुँह बनाया मेरे पिता ने,
माँ का ताना
फैला है भोंहों से ज़बान तक,
बहन छेड़ती है मुझे
पर कहती वही है जो घर कह रहा है,
घर प्रतीक्षा कर रहा है मेरी प्रतिक्रिया की,
मेरी नज़र तुम्हें सँभालती है
प्रतीक्षा करती है उस क्षण की जब हम
मिलेंगे घर से बच कर,
तब मैं तुम्हारे दिल की आग
बाहों में बाँध लूँगा
और तुम्हारे पसीने और आँसुओं को सोख लूँगा
अपने शरीर में
ताकि घुल जायें वो सब धीरे-धीरे मेरे खून में
जो तुम रोज़ महसूस करती हो इस घर में
जो कभी मेरा था,
अब है केवल अतृप्त अपेक्षाओं का पता।
मुझे खुशी है कि तुम सिमट आती हो
मेरे सीने के घोंसले में रोज़ रात को
और मैं अपने पंख तौलता हूँ
हर सुबह एक नयी उड़ान भरने के लिये
तुम्हारी आँखों के आसमान में

२९ अक्तूबर २०१२

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