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  कलियुग की दोस्तियाँ

जानती हूँ वह मेरा दुश्मन है
फिर भी बुलाती हूँ उसे घर
सामने बिठा खिलाती हूँ
दुर्लभ पकवान।
वह भी खाते-खाते सुना डालता है कितनी ही
कहानियाँ।
कुछ अपनी, कुछ जग की।
दिखाता है की बस वही एक दोस्त है मेरा
और मैं भी तो यही दिखाती हूँ।
जबकि जानती हूँ कि कल मेरी पीठ में खुभी छुरी
उसी के हाथौं से गुज़री होगी।
वह फिर भी मुस्कुराएगा और मेरी ओर एक आमंत्रण
पत्र सरकाएगा।
मैं दर्द सहलाते हुए पहुँच जाऊँगी
उसके यहाँ...
यह जानकर भी कि वह मेरा दुश्मन है
या इसलिए
कि वह मेरा दुश्मन है।
और लौटते हुए उसे न्यौता भी देती आऊँगी
दुश्मनी को दोस्ती के नाम की मान्यता देकर!

५ मई २००८

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