| चार कौए उर्फ़ चार हौए बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे 
                  कालेउन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
 उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएँ और गाएँवे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएँ।
 कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया 
                  मेंदुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
 ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गएइनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गए।
 हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती 
                  मेंहाथ बाँधकर खड़े हो गए सब विनती में
 हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएँपिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएँ।
 बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों 
                  कोखाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
 कौओं की ऐसी बन आयी पाँचों घी 
                  मेंबड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
 उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढालेउड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले।
 आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत 
                  कठिन हैयह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
 उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जानालंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना!
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