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अनुभूति में शील की रचनाएँ-

कविताओं में--
निराला
फिरंगी चले गए
बैल
मेघ न आए
राह हारी मैं न हारा
संध्या के बादल
हल की मूठ गहो

संकलन में--
मेरा भारत-आदमी का गीत

  हल की मूठ गहो

क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!
नवोन्मेष को मुखरित स्वर दो,
अभ्यागत आगत को बल दो,
अंकुर को जल-धूप--
पवन से कह दो, समुद बहो।
हल की मूठ गहो।
क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!
अगणित कुश-कंटक उग आए,
बैलों से बबूल टकराए।
ये हैं, कृषि के रोग--
बीज के दुश्मन,
इन्हें दहो।
हल की मूठ गहो।
क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!

१० अगस्त २००९

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