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उलझन

कैसे गीत लिखूँ मैं प्रियतम
तुम छंदों के सतत प्रणेता
मैं मात्रा में ठिठकी हरदम।

अभिधा से व्यंजना तलक
सब हैं भाषा की प्रतिमाएँ
पता नहीं किस-किस में बिंबित
होती मेरी अभिलाषाएँ
कोई होगा महाकाव्य पर
मैं कविता की पहली सरगम।

आरोहन अवरोहन के स्वर
गूँज रहे हैं अंतर्मन में।
वेद ऋचाएँ जाग उठी हैं
साँसों के सुरभित उपवन में
जीवन का व्याकरण जटिल है
टूट-टूट जाता है संयम।

कैसे कितने छंद रचूँ मैं
प्रेम व्यथा जो व्यक्त कर सके
संज्ञा दूँ नूतन रिश्ते को
जोगी मन आसक्त हो सके
पार निकल जाऊँ दुविधा से
रसवंती होने दूँ मौसम।

१६ अप्रैल २००५

 

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