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अनुभूति में महेश अनघ की रचनाएँ-

नई रचनाओं में-
अहा बुद्धिमानों की बस्ती
इति नहीं होती
कुछ न मिला
कौन है
गुस्सा कर भौजी
जब जब मेरी विश्वविजय
तप कर के हम
थोड़ी अनबन और उदासी
मुहरबंद हैं गीत
मैराथन में है भविष्य
शब्द शर वाले धनुर्धर
शब्दों में सतयुग की खुशबू
स्वर्णमृग लेने गए थे

गीतों में-
चैक पर लिख दूँ रकम
पत्थर दिल दुनिया
बटवारा कर दो ठाकुर
मची हुई सब ओर खननखन
मूर्तिवाला

हम भी भूखे

संकलन में-
वर्षा मंगल- मेह क्या बरसा

 

 

  हम भी भूखे

हम भी भूखे तुम भी भूखे
और बीच में वर्जित फल है
हाय समय वर्जित साँकल

जिस पर मन सुगबुग होता है
आता वही तीर की जद में
वसुधा भर कुटुम्ब कहना है
रहना है अपनी सरहद में
हम भी काले तुम भी काले
दोनों का उपनाम धवल है

अभिलाषा अभिसार उमंगें
सब झाँसे हैं सप्तपदी के
हम अगिया बैताल उठाए
खोज रहे हैं घाट नदी के
पीना मना नहाना वर्जित
कलसे में पूजा का जल है

अतिमानव आचरण हमारे
पशु होने को ललचाते हैं
बोधिवृक्ष के नीचे आकर
कितने बौने रह जाते हैं
बाहर से शालीन शिखर हम
भीतर लावा-सी हलचल है

९ नवंबर २००९

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