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अनुभूति में रमेशचंद्र शर्मा 'आरसी' की रचनाएँ -

नए गीतों में-
आँख के काजल
उगते सूरज को
यों न ठुकरा
शब्द की इक नदी

गीतों में-
खुद्दारी
चूड़ियाँ
ज़िन्दगी
बसंत गीत

मेरे गीत क्या है
सूर्य की पहली किरण हो

अंजुमन में-
काली कजरारी रातों में
मेरे गीतों को


संकलन में-
ममतामयी- माँ कुछ दिन
दिये जलाओ- दिवाली के दोहे

  खुद्दारी

माना कि हम तो छप न पाए पुस्तक या अख़बारों में,
लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में।
हम वो पत्थर है जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों तक
शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में।

हम शब्दों के शिल्प तराशा करते है पाषाणों में
शब्द बीज से फसल उगाकर भरते हैं खलियानों में
लेकिन दरबारों में हमने स्तुति गान नहीं गाए
शब्द सुमन महकाए हमने बंजर बियाबानों में
हम गुलाब से मुस्काते है रहते चाहे खारों में
लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में।

निर्मल शांत झील का जल है पर गहराई सागर की
बूँद बूँद ही सही बुझाते मगर पिपासा मरुधर की
वह धारा जो निज प्रवाह से काट रही चट्टानों को
गुमनामी कूपों गहरी है पर जिज्ञासा गागर की
आसमान को छोड़ ज़मी पर बिखर गए बौछारों में
लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में।

नहीं कामना स्वर्ण कलश बन के शिखरों पर चढ़ने की
हमने तो आदत डाली है तूफानों से लड़ने की
कट जाएँगे नहीं झुकेंगे जब से मन में ठान लिया
पीछे मुड़ कर कब देखा चाहत थी आगे बढ़ने की
फाँसी के फन्दे चूमे या चिने गए दीवारों में
लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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