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                  खुद्दारी 
                  माना कि हम तो छप न पाए पुस्तक या 
                  अख़बारों में, 
                  लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में। 
                  हम वो पत्थर है जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों तक 
                  शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में। 
                  हम शब्दों के शिल्प तराशा करते 
                  है पाषाणों में 
                  शब्द बीज से फसल उगाकर भरते हैं खलियानों में 
                  लेकिन दरबारों में हमने स्तुति गान नहीं गाए 
                  शब्द सुमन महकाए हमने बंजर बियाबानों में 
                  हम गुलाब से मुस्काते है रहते चाहे खारों में 
                  लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में। 
                  निर्मल शांत झील का जल है पर 
                  गहराई सागर की 
                  बूँद बूँद ही सही बुझाते मगर पिपासा मरुधर की 
                  वह धारा जो निज प्रवाह से काट रही चट्टानों को 
                  गुमनामी कूपों गहरी है पर जिज्ञासा गागर की 
                  आसमान को छोड़ ज़मी पर बिखर गए बौछारों में 
                  लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में। 
                  नहीं कामना स्वर्ण कलश बन के 
                  शिखरों पर चढ़ने की 
                  हमने तो आदत डाली है तूफानों से लड़ने की 
                  कट जाएँगे नहीं झुकेंगे जब से मन में ठान लिया 
                  पीछे मुड़ कर कब देखा चाहत थी आगे बढ़ने की 
                  फाँसी के फन्दे चूमे या चिने गए दीवारों में 
                  लेकिन यह क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में।  |