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                   मनपसंद वह रंग तुम्हारा 
					शाम हुई, थक गए पाँव 
					लौटा मन को मार 
					मनपसंद वह रंग तुम्हारा 
					मिला नहीं इस बार! 
					 
					ऐसे तो थे रंग बहुत-से 
					छितराए बाकी के 
					छिपे हुए थे लेकिन सब में 
					संवेदन चालाकी के 
					हर तख्ती पर खुदा हुआ था 
					कंची, प्रेम, उधार! 
					 
					चौंध-चौंध जाती थीं आँखें 
					उन बिखरी आबों में 
					कोई रंग नहीं धँस पाया 
					फिर भी ख्वाबों में 
					पता नहीं दे पाए 
					बंडल भर रद्दी अखबार! 
					माफ करो मैं शर्मिंदा हूँ 
					नहीं निभाने से 
					पकी घास गाढी पुरबा-सा 
					खोज न पाने से 
					धीरे-धीरे झड़ जाएगा 
					नकली चढा खुमार! 
                   
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