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हिज्र में भी गुलाब

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माहिये

 

कहाँ कोई किसी से

कहाँ कोई किसी से कम यहाँ था
गर इक तालाब तो दूजा कुआँ था

गिरा पत्ता, तो हावी हैं हवाएँ
शजर के साथ कब वह नातवाँ था

उन्हीं रिश्तों को परखा दूरियों ने
वो जिनका नाम ही नज़दीकियाँ था

मुझे थी कामयाबी की हिदायत
उन्हें हर बार लेना इम्तिहां था

न था तर्क-ए-त'अल्लुक़ सच है ये, पर
पलटकर 'रीत' देखा भी कहाँ था

१ अक्टूबर २०२३

 

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