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दिनचर्या
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पता
प्रेम: चार कविताएँ
मैं न आऊँगा
यह कोई व्यथा कथा नहीं
यादें
क्षणिकाएँ
धुआँ धुआँ ज़िन्दगी

  यह व्यथा कथा नहीं

यह कोई व्यथा कथा नहीं
कटाक्ष है

भोथरे हो गये हैं नेज़े
या सूख गया है लहू
जो दिखता था हर जगह
कहीं है अब नहीं

बंद मुट्ठी में
खनकते हैं घिस चुके सिक्के
जो दे गये थे दानदाता
जब चले कहीं नहीं

जिम्मा लिया था रोशनी का
कस्बे के व्यापारियों ने
जो पी गये खून सारा
पर अभी तक जले नहीं

माना कि सूख गयी हैं जड़ें
और सिमट गये हैं दायरे
पर ये जो जिस्म हैं तेरे मेरे
क्यों मिले गले नहीं

यह कोई व्यथा कथा नहीं
कटाक्ष है

१५ अक्तूबर २०००

 

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