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अनुभूति में हेम ज्योत्स्ना पाराशर
की रचनाएँ—

उड़ती तितली की तरह
उड़ना हवा में खुल कर 
कविता हूँ मैं
बहुत काम आया हमें
बुढ़ापा
बेड़ियाँ बाकी अभी है
हे जीव जगत के

 

बुढ़ापा

आँगन की तपती दोपहरी में, खाट के जैसे तपता-सा
अपनो के चेहरों में ही, अपनों की राहें तकता-सा।

चेहरे की झुर्री में मुस्कान कहीं गुम हो जाती,
तनहाई में यादों की, बातें पुरानी रटता-सा।

इस गली से उस मोड़ तक नज़रे जा-जा कर आती,
हाथ में लाठी, बैठ बगीचे में, सुख-दुख के पंखे झलता-सा।

अपने ही किस्सों की कहानी बुन-बुन कर, सबको सुनाता,
देख चुका जीवन के सब रंग, बन बैठा अब पतझड़-सा।

चकाचौंध से घर में दिवाली होती है अक्सर अब तो,
बेबसी में बेवजह, बाम पे रखा, 'दीप' कोई है जलता-सा।

३१ मार्च २००८

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