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अनुभूति में सर्वेश शुक्ल की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
आस्था
कहाँ हो तुम
चाँद को न गहूँगा
तुम्हारे लिये
 

 

कहाँ हो तुम

कहाँ हो
सारा शहर है सूना तुम्हारे बिना
अब नहीं उगता है सूरज रोज सवेरे
चौखट पर नन्हीं चिड़िया भी अब नहीं गाती
एक उदासी सुबह से नागिन की तरह डसती है
तुम्हारे जाते ही शाम मेहमान
बन कर आई थी
अब नहीं जाती
चाँदनी तब से नहीं उतरी मेरे
आँगन में
रात मेरे हिस्से का चाँद तक
खा गई
क्या कुछ नहीं बदल गया है
हर दिशा तो तलाश आया मैं
सब कोनों में ढूँढ चुका
मेरी पुकार हर तरफ़ से लौटकर
वापस आ गई है
अब आ भी जाओ
आज भी तुम्हारा पहला ख़त
संजोए हुए हूँ मैं
तार-तार हो गए उसके पन्नों में
अब भी तुम्हारी सादगी ज़िंदा है
तुम्हारे दिए वो सीप शंख वो
रुद्राक्ष की माला
आज भी तुम्हारी खुशबू से महकते हैं
हर एक साँस बोझ है तुम्हारे बिना
अब फेफड़ों में ज़ोर बचा नहीं
गला सूख़ गया है
आँखें बोझिल हो गईं हैं
कब तक तुम्हारी तस्वीरों में
अपनी धुँधली ज़िंदगी तलाशता रहूँगा
अब आ भी जाओ
सुनो मुझे जी लेने दो
आ जाओ तुम
एक बार

९ अक्तूबर २००५

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