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अनुभूति में सर्वेश शुक्ल की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
आस्था
कहाँ हो तुम
चाँद को न गहूँगा
तुम्हारे लिये
 

 

तुम्हारे लिये

आज भी सूर्य ग्रहण था
फिर वही उदास सूनी साँझ
देख रही थी
हल्की बारिश में
मेरी धमनियों में बहते हुए लहू का जमना
हल्की-हल्की बारिश
जो तूफ़ान के बाद भी तूफ़ान के होने का
अहसास करा रही थी
मैं खुद को तलाश रहा था
सब कुछ अस्त व्यस्त था
अतीत के कुछ पन्ने अभी भी
हवा में तैर रहे थे
आधे गीले आधे सूखे
तभी ईश्वर आया
सब कुछ ठहर गया, बारिश भी
मेरी आँखें फैली थी प्रभापुंज में
कुछ बज रहा था मेरे कानों में
ईश्वर क्या गाता भी है?
या ये संगीत मेरी आत्मा का है
पता नहीं
उसके कण-कण से
झरते प्रकाश से मैंने बनते देखी
एक कृति
नन्ही परी
उसने मुस्कराते हुए मेरे सर पर हाथ फेरा
हुआ पुलकित प्यार की निर्मल छाया में दग्ध हृदय मेरा
सब कुछ बदल दिया उसने
क्षण भर में
गोया उसकी हँसी न हो
जादुई छड़ी हो
अभी भी रोज़ आती है उदास सूनी साँझ
रोज़ आता है तूफ़ान
रोज़ आती है बारिश
रोज़ तलाशता हूँ मैं अपने आपको
रोज़ लगता है मेरे सूर्य को ग्रहण
पर रोज़ आ जाती है नन्हीं परी
अपनी जादुई मुस्कान के साथ
रोज़ मैं मरते-मरते जी जाता हूँ
फिर संगीत बज रहा है
क्या ईश्वर गा रहा है
नहीं ये तो नन्हीं परी है
मैं जा रहा हूँ उसके पास
कुछ देर के लिये सब कुछ भुलाने
सबसे दूर उसके पास
अपने पास
अलविदा!

९ अक्तूबर २००५

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