अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में विजय कुमार सुखवानी की रचनाएँ--

नई रचनाएँ-
उम्र भर
गुंजाइश रहती है

अंजुमन में-
ख़ास हो कर भी
ज़ख्म तो भर जाते हैं
तेरी बातें तेरा फ़साना
मेरी मेहनतों का फल दे

 

उम्र भर

उम्र भर ज़िंदगी की यही अदा रही
हम तो बावफ़ा रहे वो बेवफ़ा रही

दुश्मनों के साथ तो सारा जहान था
साथ अपने बस बुजुर्गों की दुआ रही

जिंदा रहे हम जिंदादिली के दम पर
जिंद़गी तो हमसे हरदम ख़फ़ा रही

उनकी नज़र में बस उनकी मंज़िलें
अपनी निगाह में सारी दुनिया रही

फ़ासले मिट भी जाते मगर दरमियाँ
कभी अपनी कभी उनकी अना रही

कब माँगे हमने सूरज चांद सितारे
थोड़ी सी रोशनी की इल्तिजा रही

शजर के फल औरों की किस्मत थे
शाख़ बेचारी तन्हा थी तन्हा रही

सुबह शाम रोजी रोटी की भागदौड़
जुदा इससे ज़िंदगी भी क्या रही

२९ सितंबर २००८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter