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अनुभूति में विवेक ठाकुर की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
रूप तेरा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
बापू जब तुम रोए थे

 

 

मैं बढ़ता ही जाऊँगा

सच है मैं तो टूटा ही नही
तुमने ख्वाबों को तोड़ दिया
आँखों के उस प्रेम अनल को
बन पत्थर दिल छोड़ दिया
अपने हिये की गहराई से
जाने कैसे मुँह मोड़ लिया

सच है मैं विचलित हुआ तो न हूँ
जबकि नद प्रवाह में
एक विराट पाषाण आ खड़ा हुआ
मुक्तकंठ विहग शरीर उसका देखो
कैसे निस्पंद हो पड़ा हुआ
ढहता है सपनों का महल
देखो दोनों का हृदय जड़ा हुआ

सच ही अड़िग खड़ा हूँ मैं
भले ही वक्त के थपेड़े खाए
कल्पना मुझे हतोत्साहित कर जाए
प्रिये की बातों का कोरा यथार्थ
मन को शंकाओं से भर जाए
इकरार भरा इनकार वार
प्रतिपल मन को भरमाए चकराए

अंतिम सच तो है ये
विघ्न बाधाएँ अनगिनत आईं
पर मुझसे टकराकर टूटी हैं
चाहे कितना भी जोर बहे
ये अंधड़ और तूफान सहे
मैं अनवरत बढता ही जाऊँगा
अपनी नव प्रिया को ढूँढ
फिर से सपनों का महल बसाऊँगा।

१० सितंबर २००४

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