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१९. ९. २०११

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पंख कतरने में1

 

पंख कतरने में
बहेलिये ने जल्‍दी की है

शंका व्‍यापी मन में
पंछी उड़ न कहीं जाए
रहे चाकरी में हाजिर
रूखा-सूखा खाए
मन को मार,
समय आने पर
हम जैसा बोले
परदे के पीछे का, हर्गिज
भेद नहीं खोले
आदिम होने की मुराद
यों, पूरी कर ली है

यह जंगल है, आज्ञा
चलती यहाँ शिकारी की
नीलामी हर रोज
परिन्‍दों की लाचारी की
वन के इन बाशिन्‍दों की भी
क्‍या अपनी मर्जी
कूड़ेदान पहुँच जाती
अक्‍सर इनकी अर्जी
यहाँ न कोई नियम
बाहुबल की ही चलती है

- प्रो. विद्यानंदन राजीव

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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