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अनुभूति में डॉ. ऋषिपाल धीमान की रचनाएँ-

अंजुमन में-
क्यों फ़ासिले
खुले ही रहते थे
तुमने छुआ था
मुझको रोके थी अना
लग रहा है

समझेगा कोई कैसे

कविताओं में-
होली चली गई

  खुले ही रहते थे

खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार आँगन में
तो ख़ुशियाँ आती थीं बाँधे कतार आँगन में।

मकान ख़ाली है कोई यहाँ नहीं रहता
बता रहे हैं मुझे बिखरे खार आँगन में।

हैं भाई-भाई भी दुश्मन ज़मीनों ज़र के लिए
न प्यार मिलता है ना एतबार आँगन में।

लगा यों बाप को दिल उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ
जब उसके बेटों ने खींची दिवार आँगन में।

नगर जो फैले तो आँगन सिकुड़ गए ऐसे
कि छज्जे होने लगे हैं शुमार आँगन में।

चुगेंगीं आके इन्हें अम्नो चैन की चिड़ियाँ
बिखेर प्यार के दाने तू यार आँगन में।

'ऋषी' मकानों में आँगन ही अब नहीं मिलते
बिखेरूँ कैसे भला अब मैं प्यार आँगन में।

९ जुलाई २००६

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