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अनुभूति में संजीव गौतम की रचनाएँ-

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दरोगा है वो दुनिया का

धूप का कत्ल
मैंने अपने आपको
यही सूरत है अब तो
सजा मेरी खताओं की

अंजुमन में—
कभी तो दर्ज़ होगी
जिगर का खूं
झूठ
तुम ज़रा यों ख़याल करते तो
पाँव के छाले
सियासत कह रही है

 

धूप का कत्ल कर गया

धूप का कत्ल कर गया कुहरा।
सब हदों से गुज़र गया कुहरा।

देखकर रूप डर गईं कलियाँ,
ख़ौफ़ फूलों में भर गया कुहरा।

बर्फ़ कल थी गिरी पहाड़ों पर,
आज नीचे पसर गया कुहरा।

लोग निकले मशालें लेके तो,
रोशनी देख डर गया कुहरा।

धूप निकली खिली-खिली सी जो,
चिन्दी-चिन्दी बिखर गया कुहरा।

६ जनवरी २०१४

 

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