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नज़ारे यूँ चहकते हैं

नज़ारे यूँ चहकते हैं
कि जो मदहोश करते हैं
कि कल तुम आओगे ये
सोचकर मैं जी लेता हूँ

न एक पल मैं भी सोया था
कि भौंरा बन, भटकता था
कभी कलियों के पीछे तो
कभी खुशबू के पीछे था

कि मेरा मन मयूरी कि तरह से
नाच उठता है
जाने ये तबीयत कौन सा
अब रंग लाएगी

अरे दीवानगी के दर्द को
वो लोग कहाँ जाने
जो फूल हैं खिलते
सुगंध अपनी कहाँ जाने

पल-पल मैं कहता हूँ ,
जवानों मस्त हो जाओ
दो-चार दिन की, जिंदगानी
फिर अँधेरा क्यों?

१३ सितंबर २०१०

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