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आवाज़ें

दिन रात चलता ही रहता है टी वी
उसके कमरे में,
विदेशी भाषा में
बात करते लोग,
वह देखती तक नहीं टीवी की तरफ
घंटों,
पर दिन रात घिरी रहती है वह
अजनबी आवाजों से
डरती है

चुप्पी से....
चुप्पी में बरबस उभर आने वाली
अपनी अकेली आवाज़ से,
जो दिन रात उचकती रहती है
मन के गलियारों में।
पुकारती है उसकी आवाज़,
आँखों के रास्ते बाहर निकल कर...
अपनी जायी आवाज़ों को,
पर लौट आती है उसकी पुकार खाली
उस तक,
चुभती है दुगनी
मन में और आँखों में,
लाद देती है वह
अपनी आवाज़ पर,
परायी आवाजों के लिहाफ-कम्बल,
दबा देने को अपनी आवाज़,
जो दबती तो नहीं पर
घुट जाती है कुछ देर को...
इसीलिये दिन रात
चलता ही रहता है टीवी उसके कमरे में

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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