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अनुबंध
आज में जी लें
आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम
कर्मभूमि की यह परिभाषा
कौन सुनता है तुम्हारी बात अब
खुद से प्यार
मन मेरा यह चाहे छू लूँ

मेरा जीवन बंजारा है
यादें जब भी आती हैं
ये शरीर है एक सराय

  आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम

आओ सिखाएँ प्रीत मीत हम
तुमको अंतरमन की।
तुम्हें कराएँ तुमसे परिचित
छोड़ बात जन जन की।

ये जग तो इक मोहजाल है
रिश्ते-नाते झूठे हैं।
अहम-स्वार्थ से जीते हैं सब
अपनों ने घर लूटे हैं।

आओ बतायें बातें हम कुछ
तुमको स्वयं-सृजन की।

ये शरीर माटी का पुतला
माटी में मिल जाएगा।
बह रहा जो रक्त है इसमें
सब पानी बन जाएगा।

आओ पढ़ाएँ बातें हम कुछ
तुमको स्व-अर्चन की।

१६ फरवरी २००९

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