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अनुभूति में रमेशचंद्र शर्मा 'आरसी' की रचनाएँ -

नए गीतों में-
आँख के काजल
उगते सूरज को
यों न ठुकरा
शब्द की इक नदी

गीतों में-
खुद्दारी
चूड़ियाँ
ज़िन्दगी
बसंत गीत

मेरे गीत क्या है
सूर्य की पहली किरण हो

अंजुमन में-
काली कजरारी रातों में
मेरे गीतों को


संकलन में-
ममतामयी- माँ कुछ दिन
दिये जलाओ- दिवाली के दोहे

   सूर्य की पहली किरण हो

सूर्य की
पहली किरण हो,
चहकती मनुहार हो तुम,
प्रीति यदि पावन हवन है, दिव्य मंत्रोच्चार हो तुम।

इस धरा से
व्योम तक तुमने उकेरी अल्पनाएँ,
छू रही हैं अंतरिक्षों को
तुम्हारी कल्पनाएँ।
चाँदनी जैसे सरोवर में करे अठखेलियाँ,
प्रेमियों के उर से जो निकलें वही
उदगार हो तुम

रातरानी,
नागचम्पा, गुलमोहर, कचनार हो,
तुम रजत के कंठ में ज्यों
स्वर्णमुक्ता हार हो।
रजनीगन्धा की महक तुम ही गुलाबों की हँसी,
केतकी, जूही, चमेली, कुमुदिनी,
गुलनार हो तुम।

जोगियों का
जप हो तप हो, आरती तुम अर्चना,
साधकों का साध्य तुम ही
भक्त की हो भावना।
पतितपावन सुरसरि, कालिंदी तुम ही नर्मदा,
पुण्य चारों धाम का हो स्वयं ही
हरिद्वार हो तुम।

हो न पाऊँगा
उऋण मैं उम्र भर इस भार से,
पल्लवित, पुष्पित किया जो
बाग़ तुमने प्यार से।
स्वामिनी हो तुम हृदय की, प्रेयसी तुम ही प्रिया,
जो बिखेरे अनगिनत रंग फागुनी
त्यौहार हो तुम।

२९ मार्च २०१०

 

चूड़ियाँ मुझको तब लुभाती हैं,
जब अनायास ही बज जाती हैं।
एक संगीत की सी स्वर लहरी,
जैसे की मन में उतर जाती है।

मुझको वो खनखनाहट भाती है,
माँ के हाथों से जब भी आती है।
जब बनाकर वो प्यार से खाना,
अपने हाथों से खुद खिलाती है।
मुझको वो खनखनाहट भाती है

मुझे वो खनखनाहट भाती है,
चाहे वो दूर से ही आती है।
राखियाँ बाधकर मेरी बहना,
आँख से नीर छलछलाती है।
मुझे वो खनखनाहट भाती है।

मुझे वो खनखनाहट भाती है,
हर समय मन को गुदगुदाती है।
जब भी आता हूँ मैं थका हारा,
बेटी सीने से लिपट जाती है।
मुझे वो खनखनाहट भाती है

मुझे वो खनखनाहट भाती है,
मौन है फिर भी कुछ तो गाती है।
अलसुबह रोज़ जब प्रिया मेरी,
नहा के तुलसी को जल चढ़ाती है।
मुझे वो खनखनाहट भाती है

२९ मार्च २०१०

 

गज़ल

मेरे शब्दों को मैंने प्रेरणा के स्वर दिए तो हैं,
यथा संभव सभी प्रश्नों के भी उत्तर दिए तो हैं।

अगर संकल्प ही हों क्षीण तो निश्चित पराजय है,
तुम्हे प्रारब्ध ने हर मोड़ पर अवसर दिए तो हैं।

लुटा डाले हैं किंचित व्यर्थ इसमें दोष किसका है,
तुम्हारे श्वास इश्वर ने तुम्हे गिनकर दिए तो हैं

हों कृत संकल्प तो बाधा स्वयं रस्ता दिखाती हैं,
तुम्हारी देह में भी हौसले जमकर दिए तो हैं।

बचा लो इस धरा को नष्ट होने से जो तुम चाहो,
प्रकृति ने भी ये संदेशे, तुम्हे अक्सर दिए तो हैं।

हमेशा सच कहा है "आरसी" क्यों झूठ बोलेगा,
हो शंकित तुम तो तुमको हाथ और पत्थर दिए तो हैं।

२९ मार्च २०१०

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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