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अनुभूति में डॉ. सुनील जोगी की
रचनाएँ-

नए मुक्तक
जोगी के पंद्रह मुक्तक

होली गीत
होली के रंग में

हास्य व्यंग्य में-
गांधी मत आना
प्यारे कृष्ण कन्हैया
बुढ़ापा मत देना हे राम
यारों शादी मत करना
सारे जहाँ से अच्छा
हमारी दिल्ली में

अंजुमन में-
शहर-कुछ शेर

कविताओं में-
तब याद तुम्हारी
फागुनी हवाएँ
मेरी प्यारी बहना
रथयात्रा करिए
रसवंती शाम

दोहों में-
अध्यात्म के दोहे
छतरियों का त्यौहार

संकलन में-
हिंदी की सौ सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताएँ- तुम गए जब से
नया साल-देखो आया है साल नया
धूप के पाँव- सूरज का पारा गरम
ज्योति पर्व-जगमग है धरती का आँचल
मेरा भारत-तिरंगा गीत

 

शहर कुछ शेर

जिन चराग़ों से बुर्ज़ुगों ने रौशनी की थी
उन्हीं चराग़ों से हम बस्तियाँ जलाते हैं।

मज़हबी दंगों ने मेरा शहर वीराँ कर दिया
एक आँधी सैकडों पत्ते उड़ाकर ले गई।

हमारे गाँव के सारे बुज़ुर्ग कहते हैं
बड़े शहरों में बहुत छोटे लोग रहते हैं।

गाँव से शहर में आए तो ये मालूम हुआ
घर नहीं दिल भी यहाँ पत्थरों के होते हैं।

कोशिश तो की बहुत मगर दिल तक नहीं पहुँचे
वो शहर के थे हाथ मिलाकर चले गए।

किसके दिल में है क्या अंदाज़ा नहीं मिलता है
शहर-ए-दीवार का दरवाज़ा नहीं मिलता है।

मर के वो अपने खून से तहरीर लिख गया
इक अजनबी को शहर में पानी नहीं मिला।

फूलों की न उम्मीद करो आके शहर में
घर में यहाँ तुलसी की जगह नागफनी है।

होटल का ताज़ा खाना भी स्वाद नहीं दे पाता है
माँ के हाथ की बासी रोटी मक्खन जैसी लगती है।

होठों पर मुस्कान समेटे दिल में पैनी आरी है
बाहर से भोले-भाले हैं भीतर से होशियारी है।

भूखे प्यासे पूछ रहे हैं रो-रो कर राजधानी से
कब तक हम लाचार रहेंगे आख़िर रोटी पानी से।

जब तक पैसा था बस्ती के सबके सब घर अपने थे
जब हाथों को फैलाया सबके दरवाज़े बंद मिले।

मशरूफ़ हैं सब, दौरे-तरक्की के नाम पर
कोई भी मेरे शहर में खाली नहीं मिलता।

16 जुलाई 2006

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