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                     अनुभूति 
					में पुष्यमित्र की रचनाएँ—  
					 
					छंदमुक्त में— 
					उदास चेहरे 
                    
                    गाँव की तकदीर 
                    
                    चुंबन की निशानियाँ 
                    
                    पतंगबाज 
                    
                    पर्वत और नदी 
                    
                    सुबहें  
					 
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					सुबहें 
					 
					 
					काश! मेरी सुबहें इतनी हरी हों 
					कि कोई मौका न हो 
					टोटका बुनने का। 
					यानि यह हिसाब लगाने का 
					कि दिन शुभ हो या अशुभ। 
					आँखों को देखने का मौका तक न हो 
					होठों को गिनने की फुरसत भी नहीं। 
					सुबहें ऐसी हों कि इनमें मैं भी न रहूँ, 
					हवाओं में लिपटी खुशबू भी 
					झकझोर कर ही अहसास दिला पाए। 
					चीज़ें उलट–पुलट हो जाएँ 
					और सजाने का मौका तक न मिले। 
					या ऐसी तो हों ही कि 
					कम से कम कविताएँ लिखने का खयाल न आए। 
					यानि ऐसी- 
					झटपट नहाकर बाहर निकलने की हड़बड़ी जैसी 
					या चाय बनाकर 
					सबको जगा देने की खुशी जैसी। 
					या फिर 
					चुपचाप 
					सड़कों पर निकल जाऊँ 
					अकेला। 
					हवाओं में उत्तेजना की थरथराहट 
					बिखेरता। 
					 
					९ मई २००६  |