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अनुभूति में अमित खरे की रचनाएँ-

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गांधारी

हाय गांधारी ! ये तूने क्या किया ?
सुनी तो थी तूने गीता
फिर भी
न छूटा मोह तेरा
केशव को ही श्राप दे दिया ?

एक अवसर था पास तेरे
अगला जन्म सँवारने का
उसको भी व्यर्थ गँवा बैठी
अब तक के संचित
सब सत्कर्मों को
हारी बाजी के दाँव लगा बैठी।
और इस एक कर्म से तूने
कितने जन्मों का त्रास ले लिया।

शायद तुम संजय की बातों में
बस, कौरवों का समाचार ढूँढती रहीं
सिर्फ वही बातें सुनी तुमने
जो तुम्हारे पुत्रों से संबंधित थीं कहीं।
और गीता तो कृष्ण अर्जुन को सुना रहे थे
क्यों सुनती ? तुम भला, ध्यान देकर
पर सुनती, तो शायद जान पाती
कि जो भी घटा कुरुक्षेत्र में
उसके लिये कृष्ण कहाँ दोषी थे।

सच पूछो तो किसी के भी दुर्भाग्य में
कोई और कहाँ दोषी होता है
हर एक अपने कर्मों के फल का
जिम्मेदार तो स्वयं ही होता है।

गीता को समझ पातीं
तो नहीं जलती यों संताप में
कितनी सौभाग्यशाली थीं तुम
जो सुन सकीं स्वयं माधव के मुख से
जीवन का परम सत्य।

तुम तो प्रत्यक्षदर्शी बन सकती थीं उस क्षण की
जब परिवर्तित हो रहा था, धर्मचक्र
उन्नयन हो रहा था, मानव की चेतना का
फिर क्यों न खोल दिये नेत्र तुमने ?
जिस व्रत को पाल रही थीं तुम
उसके संचित लाभों का जब
ये ही फल लेना था तुम्हे
तब इसकी अपेक्षा तो
श्रेयस्कर था, उस क्षण का साक्षी होना
हाय गांधारी ! क्या ये भी न समझ सकीं तुम ?

तेरा श्राप तो बिन दिए भी फलीभूत होना था
यही तो समझा रहे थे, अच्युतानंद
जब कहा था उन्होंने
सृष्टि के इस कठोर नियम में
वो भी बँधे हैं
क्योंकि जन्म लिया है उन्होंने
तो कर्मफल तो उन्हें भी भोगना होगा
फिर तुम्हे क्या जल्दी थी
क्यों अपना भविष्य बिगाड़ बैठीं
ये अपयश क्यों अपने सर ले लिया।
हाय गांधारी ! ये तूने क्या किया ?

१ जुलाई २०२२

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