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अनुभूति में आशीष नैथानी सलिल की रचनाएँ-

अंजुमन में--
ख़ता करके
चन्द सिक्के दिखा रहे हो
पहाड़ों पर सुनामी थी
बेमुनव्वर जिंदगी होने लगी
मुस्कुराना छोड़कर
सहर को सहर

 

ख़ता करके

ख़ता करके मुकर जाने की लत अच्छी नहीं लगती
हमें इन लोगों की यारी कोई यारी नहीं लगती ।

सियासत कर रहे हैं जो गरीबों का लहू पीकर
उन्हें फिर से जिताने में समझदारी नहीं लगती ।

मेरी आँखें तेरे दर पर हैं ठुकराई गईं, तब से
किसी की आँख की बूँदें हमें मोती नहीं लगतीं।

करीने से सज़ाकर थे रखे कुछ काँच के टुकड़े
मगर अब काँच की चूड़ी भी कुछ भोली नहीं लगती।

बचाकर रखती थी चादर में, बर्फीली हवाओं से
मुझे अब शहर में माँ, उस कदर सर्दी नहीं लगती।

निकलते गाँव से हमने रखा था साथ कुछ मीठा,
'सलिल' गुड़ की डली मीठी, यहाँ मीठी नहीं लगती।

१७ फरवरी २०१४

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