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अनुभूति में डॉ. दामोदर खडसे की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
कवच
कोरे शब्द
स्मृतियों की रेत
साथ साथ

 

साथ-साथ

मंजिल एक ही हो,
राहें भी
और साथ होकर भी
मिलें नहीं
रेल की पटरियों की तरह !
मंजिलों के लिए अपनी-अपनी
करते रहें पार दूरियाँ
केवल क्रॉसिंग पर
सुनते रहें
एक-दूसरे की प्रतिध्वनियाँ....
ऊपर से गुजर रही है
एक दुनिया मुकम्मल
मिलते और बिछड़ते लोगों का
गुमसुम या कि चहचहाता हुजूम
दुनियादारी के लौह पहिए
रौंद रहे हैं
यदाकदा रेफरी की सीटी की
तरह
उभर आती है टीस की आवाज
पर यात्राएँ जारी हैं....
मिलें या न मिलें
साथ-साथ होना
किसी मंजिल से कम तो नहीं !

६ जनवरी २०१४

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