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अनुभूति में दिगंबर नासवा की
रचनाएँ -

छंदमुक्त में-
डरपोक
प्रगति
प्रश्न
बीसवीं सदी की वसीयत
रिश्ता

गीतों में-
आशा का घोड़ा
क्या मिला सचमुच शिखर
घास उगी
चिलचिलाती धूप है

पलाश की खट्टी कली

अंजुमन में-
आँखें चार नहीं कर पाता
प्यासी दो साँसें
धूप पीली
सफ़र में
हसीन हादसे का शिकार

संकलन में-
मेरा भारत- हाथ वीणा नहीं तलवार
देश हमारा- आज प्रतिदिन
शुभ दीपावली- इस बार दिवाली पर

 

बीसवीं सदी की वसीयत

मौत
जी हाँ, जब बीसवीं सदी की मौत हुई
(हँसने की बात नहीं सदी की भी मौत आती है)

हाँ तो मैं कह रहा था जब बीसवीं सदी की मौत हुई
अनगिनत आँखों के सामने
उसकी वसीयत का पंचनामा हुआ

पाँच-सितारा इमारत के ए. सी. कमरों में
बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण,
और तथाकथित विद्वता भरे,
ग्रोथ रेट और बढते मध्यम वर्ग के आँकड़ों के बीच
संसद के गलियारे में ऊँघते सांसदों की
डारेक्ट टेलीकास्ट होती बहस ने
सरकारी पैसे पर अखबारों में छपे
बड़े बड़े विज्ञापनों की चमक ने
कितना कुछ तलाश लिया उस वसीयत में

पर किसी ने नहीं देखे
विरासत में मिले बीसवीं सदी के कुछ प्रश्न
अन-सुलझे सवाल, व्यवस्था के प्रति विद्रोह

पानी की प्यास, दीमक खाए बदन
हड्डियों से चिपके पेट, भविष्य खोदता बचपन
चरमराती जवानी, बढ़ता नक्सल वाद

कुछ ऐसे प्रश्नों को लेकर
इक्कीसवीं सदी में सुगबुगाहट है
अस्पष्ट आवाजों का शोर उठने लगा है
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पीठ फेर ली
सांसदों के कान बंद हैं
प्रगतिशील लोगों ने मुखोटा लगा लिया
प्रजा “तंत्र” की व्यवस्था में मग्न है
धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी मौत की तरफ बढ़ रही है

१४ अप्रैल २०१४

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