| उँड़स ली उँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वालीहुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली
 कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों परमजा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
 जिन्हें झुकना नहीं आया, शजर वो टूट कर बिखरेहवाओं ने झलक दिखलायी जब भी आँधियों वाली
 भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैंगुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली
 बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भीजो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
 खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुनउड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
 दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसाकि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
 लड़ा तूफ़ान से वो खुश्क पत्ता इस तरह दिन भरहवा चलने लगी है चाल अब बैसाखियों वाली
 बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शहर
  की 'गौतम'चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
 ५ अप्रैल २०१० |