अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में 'साग़र' पालमपुरी की रचनाएँ-

नई रचनाएँ
अपनी फ़ितरत
किस को है मालूम न जाने
खोये-खोये-से हो
ज़ेह्न अपना
सोच के ये निकले

अंजुमन में-
कहाँ चला गया बचपन
चिड़ियों के घोसले
जिसको पाना है
बेसहारों के मददगार
रात कट जाए
वो बस के मेरे दिल में भी

  ज़ेह्न अपना

ज़ेह्न अपना झंझोड़ कर देखो
खुद को दुनिया से मोड़कर देखो

सच हमेशा सपाट होता है
चाहे कितना मरोड़ कर देखो

ज़ालिमो! तुम कभी लहू अपना
बूँद भर ही निचोड़ कर देखो

जिन ग़रीबों के हो मसीहा तुम
ख़ुद को उन से तो जोड़कर देखो

मंज़िलें ख़ुद क़रीब आएँगी
साथ रहबर का छोड़ कर देखो

आइना तोड़ना तो आसाँ है
टूट जाए तो जोड़ कर देखो

अपने रंग-ए-ग़ज़ल से ही 'साग़र'!
रुख़ हवाओं का मोड़ कर देखो.

३ नवंबर २००८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter