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अनुभूति में डॉ. ऋषिपाल धीमान की रचनाएँ-

अंजुमन में-
क्यों फ़ासिले
खुले ही रहते थे
तुमने छुआ था
मुझको रोके थी अना
लग रहा है

समझेगा कोई कैसे

कविताओं में-
होली चली गई

  होली चली गई

मनुहार भी गई वो ठिठोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

लौटेगा अबके साल अमन सोचते रहे
बदलेगा आदमी का चलन सोचते रहे
फूलों से भर उठेगा चमन सोचते रहे
काँटों से भरती अपनी तो झोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

अपने लहू से खून की खेली थी होलियाँ
जब जलियाँ वालाँ बाग में खाई थी गोलियाँ
फिर भी शहीद होने को जाती थीं टोलियाँ
जाने कहाँ वो वीरों की टोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

अब देशप्रेम को भी ख़याली बना दिया
नारा कभी-कभी इसे ताली बना दिया
अब तो बसंती रंग को गाली बना दिया
कुर्बानियों की खाली ही डोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

फगुवा न सुनने को मिला चीख़ें सुनाई दीं
वाराणसी के घाट पे लाशें दिखाई दीं
इंसानियत की आहें कराहें सुनाई दीं
किस किस को चीरती हुई गोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

लेते हैं बेगुनाहों की ये जान सिरफिरे
इसको जिहाद कहते हैं शैतान सिरफिरे
मज़हब को नहीं समझे हैं नादान सिरफिरे
बेकार सूफ़ी संतों की बोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

इक दिन तो ख़त्म होगा ये दहशत का दौर भी
दुनिया में फिर चलेगा मुहब्बत का दौर भी
इंसानियत के साथ इबादत का दौर भी
मुझसे ये कहती बच्चों की टोली चली गई
कब आके अबके साल की होली चली गई

९ अप्रैल २००६

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