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अनुभूति में डॉ. ऋषिपाल धीमान की रचनाएँ-

अंजुमन में-
क्यों फ़ासिले
खुले ही रहते थे
तुमने छुआ था
मुझको रोके थी अना
लग रहा है

समझेगा कोई कैसे

कविताओं में-
होली चली गई

  समझेगा कोई कैसे

समझेगा कोई कैसे असरार ज़िंदगी के
होते नहीं हैं रस्ते हमवार ज़िंदगी के।

ये कौन-सी है बस्ती ये कौन-सा जहाँ है
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िंदगी के।

जब इक ख़ुशी मिली तो सौ गम़ भी साथ आए
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िंदगी के।

अपना ही हाथ जैसे अपने लहू में तर है
देखें हैं रंग ऐसे सौ बार ज़िंदगी के।

सारी उमर हैं तरसे ख़ुद ही से मिलने को हम
कुछ इस तरह निभाए किरदार ज़िंदगी के।

इक भूख से बिलखते बच्चे ने माँ से पूछा
'क्या सच में हम नहीं हैं हक़दार ज़िंदगी के।'

'ऋषि' जिसने ज़िंदगी के सब फऱ्ज थे निभाए
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िंदगी के।

९ जुलाई २००६

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