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अनुभूति में वीरेन्द्र कुँवर की रचनाएँ-

अंजुमन में-
पत्थरों को फूल लिक्खूँ
ये माना बिन खुशामद
वहाँ अधिकार की बातों की चर्चा

हाथ से मुंसिफ के

 

हाथ से मुंसिफ के

हाथ से मुंसिफ के फिर ऐसी खता होने को है
जो नहीं दोषी हैं उनको ही सजा होने को है।

बिक चुकी हो जब तराजू ही कहीं इंसाफ की
पहले चल जाता पता जो फैसला होने को है।

ये सियासत का चलन है उसकी गर्दन काट दें
जब लगे कद उसका अब खुद से बड़ा होने को है।

शांत बस्ती में हुईं जब भी सियासी हलचलें
दिल सहम उट्ठा कि कोई हादसा होने को है।

ढहती दीवारों के साए से जो माँगे है पनाह
आप खुद ही सोच लीजै उसका क्या होने को है।

१५ जुलाई २०१३

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