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पिता का सफर

 

पिता का सफर

सूरज की तपिश के बावजूद
निकल पड़ते भरी दुपहरी
भीड़ भरी बस में खड़े-खड़े सफर
पसीने से लथपथ पिता
पहुँचते छोटे बेटे के दरवाजे
आधी रात
हाल जानने
उस पर आई मुसीबतों की
छानबीन करते
तकलीफें दूर करने का
भरसक यत्न करते
उसे मंजि़्ाल का एहसास दिलाते
एक बार फिर
और लौट पड़ते

लौटती राह
उनका अगला पड़ाव होता
बड़े बेटे का घर
प्यास से सूखे हांेठ लिए पहुँचते
दिलासा देते उसे
नौकरी की ऊँच-नीच समझाते
ज़माने से समझौता करने कहते
सबसे ताल मिला कर चलने को कहते
रसोई-घर में खाली पड़े डिब्बे में
गुड़-चना और थोड़ा काजू
ख़रीदकर भरते
सेहत का ख्याल रखने को कहते
और लौट पड़ते....

अभी पूरा नहीं हुआ उनका सफर
चल पड़ते वे एक बार फिर
कंघे पर बैग लटकाए
बिटिया, जमाई और उनके बच्चों के
दुखों को समेटने
खुले हाथों से बाँटने को उतावले उन्हें
ज़िंदगी की सारी खुषियाँ

यूँ उनका ये सफर
खत्म होता माँ के पास पहुँचकर
जिन्हें वे एक पिटारा थमा देते
छोटे-बड़े बेटों
बिटिया-जमाई और उनके बच्चों के
सुख-दुःख के क़िस्सों का पिटारा।

७ अप्रैल २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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