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अनुभूति में दिलीप लोकरे की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
आदमी हूँ मैं
कहाँ गई वो माँ
प्रकृति

यादों के गलियारे
समझदार बच्चा

 

प्रकृति

क्या कभी सुनी है तुमने
किसी बीज के चटखने की आवाज ?
पौधा कब बाहर आता है
देखा कभी किसी ने ?
मिटटी को खोदे जाने पर
कभी चीत्कार नहीं की उसने
चिड़िया डरती नहीं कभी
सूखे पत्ते के गिरने से
हवाओं के तेज बहने पर
टहनियाँ नहीं होती परेशान
बादलों से घिर जाने पर
सूरज नहीं खोता अपनी गरमी
सदियों से रहा है यह चक्र
ऐसा ही
कोई नहीं करता शिकायत
किसी से
पर कब तक ?
इस आदमी ने
सब कुछ डाल दिया है
खतरे में
कुछ सजा तो देगी हमें
प्रकृति भी
चाहे वह कितनी ही दयावान क्यों न हो

१८ मार्च २०१३

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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