अनुभूति में
दिलीप लोकरे की रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
आदमी हूँ मैं
कहाँ गई वो माँ
प्रकृति
यादों के
गलियारे
समझदार
बच्चा |
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समझदार बच्चा
कभी चाँद को
रोटी समझने वाला बच्चा
अब समझदार हो गया है,
वह जानता है,
चाँद-चाँद है,
रोटी नहीं
वह यह भी जानता है
अच्छी तरह
कि मेहनत करे बिना
रोज रात को
चाँद दिख सकता है रोटी नहीं
और शायद इसीलिये रात को
चाँद देखने के बदले
वह काम करता है
तभी पाता है
सुबह-सुबह रोटी, भरपेट
१८ मार्च
२०१३
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