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अनुभूति में हर्ष कुमार की रचनाएँ-

कविताओं में-
कल्पना और विश्वास
दंगे
फ़ासला- एक पीढ़ी का
मैं और मेरा भगवान
संध्या का सूर्य
सभ्यता की पहचान
समुद्र की लहरें

  दंगे

जब-जब दंगे होते हैं
हम नंगे होते हैं।
जब-जब दंगे होते हैं
हमारे ऊपर से
'समाज' की चादर
खींच ली जाती है।
हमारे 'सभ्यता' के कपड़े
नोच लिए जाते हैं।
हम नंगे हो जाते हैं

जब-जब दंगे होते हैं
हम अपनी 'समाज' की चादर
फाड़ देते हैं।
अपने 'सभ्यता' के कपड़े
नोच कर उतार फेंकते हैं
नंगे हो जाते हैं

जब-जब दंगे होते हैं
हम नंगे होते हैं।

२४ मार्च २००८

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