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अनुभूति में करुणेश किशन की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
जनाब बचपन से देखता हूँ
दीवार की खूबसूरती
धुंध
प्रियतमा चाय
मेरी अँगूठी का नगीना

  जनाब, बचपन से देखता हूँ

एक छाया अँधेरे में
हर वक़्त मेरे पास
हर पल मेरे साथ

जब भूख लगी
उसके हाथो में
दाल-भात के कौर ने
बचपन की भूख मिटा दी

चौका बर्तन तो करती थी
डाँट डपट भी देती वो
प्यार से गले लगाने को
दो हाथों वाली देवी थी

जब रोता तब वो हँसती
कहती रोया -रोया
मैं कहता मैं हँस रहा हूँ
क्यों उस पल को खोया

न जाने क्या बात थी उसमें
सत्तर में बीस की हो जाती
भरी दोपहरी ओढ़ के पल्लू
मेरे पीछे लग जाती

अम्मा-अम्मा कहता था मैं
रोज कहानी सुनता था
एक कहानी दस बार
फर्क समझ न पाता था

जनाब, बचपन से देखता हूँ!

रोता-रोता स्कूल जाता
अक्सर मैं
जिद करता टिफिन न खाता
अम्मा आती याद

अपना काम छोड़कर अम्मा
आती मेरे पास
वही दाल वही भात
लगता था फिर खास

जनाब, अब बचपन को देखता हूँ!

समय की शिथिलता कहें
या कहें समय का वेग
तेज निकलता जा रहा
या रुक के मुझे ताक रहा

घृणा होती आज से मुझको
जब कल
इतना सुंदर बीत चुका

सोचूँ फिर से जी पाता
बचपन का एक पल
न जाने कैसा होगा ये
आने वाला कल

कुछ-कुछ तो पता चला है
कुछ रह गया अनजान

अँधेरा छट चुका
छाया पूर्ण थी
थोड़ी झुकी और कमजोर सी

समय की धार पर
मैं भी कहीं दूर बह गया
मेरी नानी तेरी कहानी
अपनी जुबानी कह गया

जनाब, बचपन ही अच्छा था

५ मई २०१४

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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