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अनुभूति में करुणेश किशन की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
जनाब बचपन से देखता हूँ
दीवार की खूबसूरती
धुंध
प्रियतमा चाय
मेरी अँगूठी का नगीना

  प्रियतमा चाय

हो रहा सवेरा
खिड़की से दूर

सड़क के दो किनारे
नहीं मिल रहे आपस में
पर मिल रहे क्षितिज
से साथ-साथ

मेरे कमरे की छत से
लटकता पंखा,
उसकी बाजुएँ कर रहीं
आपस में भाग दौड़

मानो
खेल रही हों खेल
बचपन के पिटारे से
छुआ छुई का

खिड़की पर लटकता पर्दा
झूलता है हवा के झोंकों से
और फिर झाँकती है
लजाती हुई भोर की पहली किरण

पड़ती है आँखों पर
नींद की परतें हटाने को
मिचमिचाती आँखें फिर
दौड़ लगाती हैं

दुनिया के रंगों को
पास से देखने को
जैसे रंग और आँखें भी
खेल रहे हों

बचपन के पिटारे से
छुआ छुई का खेल

दूर किसी मंदिर के
भोंपू से आ रही
आरती की गूँज
अरे! शंख नाद भी हो रहा

गाँव की वो कुम्हारन लड़की
जाती हुई काम पर
पलट कर देख लेती

एक बार को
फिर चल देती
गंतव्य को

सर पर बोझ उठाए
खेतिहर, उसी पहर
चले हैं अपने खेत पर

मैं आलस का पुजारी
क्या करूँ और कैसे
आया नहीं जगाने कोई
उठ जाऊँ मैं कैसे

नहीं उठूँगा मैं
खुद से

इन्तजार कर रहा मैं
किसी के आने का
गुस्सा कर रहा मन ही मन
आया नहीं अबतक

तभी कहीं से
अप्सराओं की अदाएँ
प्याले में भरके

लजाती, सकुचाती
आती है वो
पहचान रहा मैं
चाय कहते हैं सब

जैसे रही हो पुकार
आओ अपने अधरों का
सपर्श करा दो
मेरे प्यालों से

अपने प्रियवर के इन्तजार में
जैसे प्रियतमा ने
छप्पन भोग सजाए हों

नींद से जागूँ
या सो जाऊँ
कभी खुद को तो कभी
उस प्रियतमा को देखूँ

और पुकारूँ चाय! चाय! चाय!

५ मई २०१४

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