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अनुभूति में ललिता प्रदीप की रचनाएँ

छंदमुक्त में—
ज़िंदगी की अँधेरी सुरंग
थोड़ी कल्पना मेरी
पूरा भागीदार
भरोसे की कीमत
मेरी हिंदी... मेरी भाषा... मेरी माँ...

 

मेरी हिंदी... मेरी भाषा... मेरी माँ...

जब मैं कोई अक्षर नहीं जानती थी
तो मैंने सबसे पहले क्या बोला होगा?
अपनी माँ को अपनी भाषा में
शायद "माँ" कहा होगा
जब मुझे कभी डर लगा होगा, तो भी
मैं घबराकर चिल्लाई होऊँगी अपनी भाषा में
मैं पहली बार जब ख़ुशी से पागल हो गयी होऊँगी
तो भी मैंने इसे व्यक्त किया होगा
अपनी भाषा में
मेरे हँसने, गाने, दुखी होने, दर्द से कराहने की
हर अभिव्यक्ति में
मेरे साथ होती थी मेरी अपनी भाषा,
जिसे मैं अपनी भावनाओं के करीब पाती थी,
तब तक कि जब
मुझे पहली बार कक्षा छः में
एक विदेशी भाषा का ककहरा पढाया गया
और तब से जो शुरू हुआ
निरंतर अभिव्यक्ति में
आत्मविश्वास के क्षरण का अंतहीन सिलसिला...
आजतक मेरी पहचान को
अन्दर ही अन्दर खाए जा रहा है
अभी कुछ दिन पहले
वो लड़की मेरे एक शब्द को भी न समझ पाई थी
कयोंकि मैंने उसे हिंदी में बोला था
वो थी तो हिंदुस्तान के किसी और प्रान्त की
फिर अगले दो चार दिन हम साथ थे
मैं हिंदी बोलती थी वो अंग्रेजी में
मुझे समझती थी
उसने मुझसे कहा था कि यह हद दर्जे की शर्मिंदगी है,
लेकिन हम सब करें तो क्या...!
हम वो अनाथ हैं
जिनकी अपनी माँ तो है,
परन्तु हमे पसंद नहीं है
कयोंकि उसकी त्वचा गोरी नहीं है
हम वो अनाथ कौम हैं
जहाँ अपनी भाषा मातृभाषा नहीं
राजभाषा कही जाती है
पचासी वर्ष की उम्र में देश के एक द्वीप में
बोआ के मरने से
एक पूरी भाषा मर जाती है
हे ईश्वर।।!! मेरे देश में,
मेरी किसी भी पीढ़ी में
मेरे बच्चों को वो दिन मत दिखाना
कि किसी उम्रदार हिन्दुस्तानी की मौत के साथ
मर गयी मेरी
मातृभाषा

२ मई २०११

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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