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अनुभूति में ललिता प्रदीप की रचनाएँ

छंदमुक्त में—
ज़िंदगी की अँधेरी सुरंग
थोड़ी कल्पना मेरी
पूरा भागीदार
भरोसे की कीमत
मेरी हिंदी... मेरी भाषा... मेरी माँ...


 

 

ज़िन्दगी की अँधेरी सुरंग

जब ज़िन्दगी बिलकुल ही अँधेरी सुरंगों से
गुजर रही हो तो, मेरे दोस्त..!!
तुम्हारी रह रह कर आने वाली याद ही
रौशनी की लकीर होती है,
मुश्किल है तेरी आवाज़ के
सम्मोहन से बाहर निकल पाना,
मेरी सारी कसमें,
अपने आप से किया गए वादे,
तुमसे दूर, तुम्हारे साए से दूर,
तुम्हारी यादों से दूर चले जाने से
यूं भरभरा के गिरते हैं
मेरी आँखों के सामने
कि क्षण भर के लिए तो
मैं लज्जित सी होती हूँ अपने आत्मविश्वास पर;
इन अँधेरी सुरंगों में जीवन के बीच
मैं मुस्करा सी देती हूँ,
अपनी इस मजबूरी पर कुछ यूं
कि ये अँधेरे गुजर जाने दो
और मैं आज़ाद हो जाऊंगी
पर यादों का ये जो सिलसिला है
ये मेरी मुस्कराहट से दर्द तक,
अँधेरे से लेकर उजाले तक,
तुमसे ही शुरू होता है और
तुम पर ही टिक कर
मेरे लिए चुनौती बनता है,
पर
तुमसे जीतना मेरा धर्म कहाँ,
ये तो तुम तक आकर खत्म होता है

२ मई २०११

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