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अनुभूति में निर्मल गुप्त की रचनाएँ-

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तुम्हारे बिना अयोध्या
नाम की नदी
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बाघखोर आदमी
रोटी का सपना

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एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
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नहाती हुई लड़की
पहला सबक
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
मेरे ख्वाब
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म

 

रोटी का सपना
[महान जनकवि धूमिल जी को समर्पित ]

आखिरकार वह सो गया
भूख से लड़ते -लड़ते
तब उसने एक सपना देखा
गोल -मटोल रोटी का
जो लुढक रही थी
किसी गेंद की तरह
यहाँ से वहाँ
उसे चिढ़ाती
पास जाने पर
दूर भागती
कभी हाथ में आती
फिर फिसल जाती

गर्म रोटी की गंध
उसे बेचैन किये थी
अशक्त शरीर हर हाल में
चाहता था जीतना
खाली अमाशय को
मंजूर नहीं थी हार

रोटी के इस खेल से
ऊबा हुआ शरीर जब जागा
तब भिंचे हुए थे उसके जबड़े
मुट्ठीओं में थी गज़ब की ताकत
मन में था यकीन
वह रोटी का यह खेल
अब और नहीं चलने देगा
न कभी खुद खेलेगा सपने में भी
न किसी को देगा इसकी इज़ाज़त

असंख्य भूखे शरीर
अब केवल सपना ही नहीं देखते.

११ अप्रैल २०११

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