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                    अनुभूति में निर्मल गुप्त की 
                    रचनाएँ- 
                     नई कविताओं में- 
                    तुम्हारे बिना अयोध्या 
					नाम की नदी 
					फूल का खेल 
					बाघखोर आदमी 
					रोटी का सपना 
                  छंदमुक्त में- 
                    इस नए घर में 
                    एक दैनिक यात्री की दिनचर्या 
                  एहतियात 
                    गतिमान ज़िंदगी  
                     घर लौटने पर 
                    डरे हुए लोग 
                  नहाती हुई लड़की 
                  पहला सबक 
                  बच्चे के बड़ा होने तक 
                    बयान  
                    मेरे ख्वाब 
                    लड़कियाँ उदास हैं 
                    हैरतंगेज़ 
                  रेलवे प्लेटफ़ार्म  | 
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 तुम्हारे बिना अयोध्या 
 
राम ! 
तुम्हारी अयोध्या मैं कभी नहीं गया 
वहाँ जाकर करता भी क्या 
तुमने तो ले ली 
सरयू में जल समाधि. 
 
अयोध्या तुम्हारे श्वासों में थी 
बसी हुई थी तुम्हारे रग-रग में 
लहू बन कर . 
तुम्हारी अयोध्या जमीन का 
कोई टुकड़ा भर नहीं थी 
न ईंट गारे की बनी 
इमारत थी वह. 
अयोध्या तो तुम्हारी काया थी 
अंतर्मन में धड़कता दिल हो जैसे  
 
तुम भी तो ऊब गए थे 
इस धरती के प्रवास से 
बिना सीता के जीवन 
हो गया था तुम्हारा निस्सार 
तुम चले गए 
सरयू से गुजरते हुए 
जीवन के उस पार. 
तुम गए 
अयोध्या भी चली गई 
तुम्हारे साथ  
 
अब अयोध्या में है क्या 
तुम्हारे नाम पर बजते 
कुछ घंटे घडियाल. 
राम नाम का खोफनाक उच्चारण 
मंदिरों के शिखर में फहराती 
कुछ रक्त रंजित ध्वजाएं. 
खून मांगती लपलपाती जीभें 
आग उगलती खूंखार आवाजें. 
हर गली में मौत की पदचाप 
भावी आशंका को भांप 
रोते हुए आवारा कुत्ते . 
 
तुम्हारे बिना अयोध्या 
तुम्हारी अयोध्या नहीं है 
वह तो तुम्हारी हमनाम 
एक खतरनाक जगह है 
जहाँ से रुक -रुक कर 
सुनाई देते हैं 
सामूहिक रुदन के 
डरावने स्वर. 
 
राम ! 
मुझे माफ करना 
तुम्हारे से अलग कोई अयोध्या 
कहीं है इस धरती पर तो 
मुझे उसका पता मालूम नहीं 
११ अप्रैल २०११ 
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