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अनुभूति में प्रेमचंद गाँधी की रचनाएँ

छदमुक्त में-
एक दुआ
एक बाल
मम्मो के लिये
मेरा सूरज
याद

`

इक बाल

ना जाने किसका है यह
नर्म, रेशमी, लंबा-सुनहरा बाल
जो होटल के इस कंबल में
मेरे चेहरे और कपड़ों में उलझ गया है

बहुत आहिस्ता से सुलझाया है मैंने इसे
ताकि टूटे नहीं
एक बार टूटे हुए को
फिर से तोड़ना
कोई अच्छी बात नहीं

इस बाल की रंगत और खुश्बू बताती है
ज़रूर यह किसी नई-नवेली दुल्हन का होगा
तो क्या यह कंबल
एक प्रेम का साक्षी रहा है

इस सर्द सुबह में
एक अकेले पुरुष को
कितना गर्म अहसास दे गया है
यह खूबसूरत बाल

इस बाल का इकबाल बुलंद रहे
इस बाल वाली दुल्हुन की मुहब्बतत बुलंद रहे।

२८ फरवरी २०११

 

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