अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में प्रेमचंद गाँधी की रचनाएँ

छदमुक्त में-
एक दुआ
एक बाल
मम्मो के लिये
मेरा सूरज
याद

`

याद

यह याद... यह स्मृति
क्योंकर चली आती है
मेरे पीछे आहिस्ता-आहिस्ता
जिसे भूलने में बीस बरस भी कम लगें
वो याद क्यों चली आती है
बीती हुई शाम की तरह चुपचाप
हौले-हौले
जैसे ठण्डे मक्खन में उतरता है
कोई गुनगुना चाकू
आहिस्ता-आहिस्ता

नहीं-नहीं समय
कभी कम नहीं करता घावों का ज़ख्मी‍ अहसास
घावों की तासीर बढा देता है वक्त
आहिस्ता...आहिस्ता

तुम्हारी याद के ज़ख्म अब भी हरे हैं
तुम्हारे छूट चुके आँगन की तुलसी की तरह
क्या तुम्हें वो चाँदनी रात और
छत का नज़ारा याद है
जब तुम पहली बार
बड़े-बड़े फूलों वाली
नीली साड़ी पहनकर आई थीं
और मैं हैरत से देख रहा था
कभी नीला आकाश
कभी तुम्हाकरा नीला रूप...

२८ फरवरी २०११

 

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter