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अनुभूति में प्रेम शंकर रघुवंशी की रचनाएँ-

नई कविताएँ
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ममत्व से दूर
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स्त्री
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गीतों में-
गूंजे कूक प्यार की
नागार्जुन के महाप्रयाण पर
पाकशाला का गीत
सपनों में सतपुड़ा
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कविताओं में-
इन दिनों
गर्भगृह तक
गांव आने पर
निश्चय ही वहां
महक
मां की याद
मिल बांटकर
सतपुड़ा और उसकी बेटी नर्मदा
हथेलियां

नागार्जुन के महाप्रयाण पर

बाबा के जानेपर जाना।
बाबा था कितना पहचाना।।
मेरा तेरा सबका था वह
अपनी धुन का पक्का था वह
युवकों के संग महायुवक था
बच्चों के संग बच्चा था वह
उनका नहीं कि जिनने चाहा
अपनी झोली में बैठाना
उनका नहीं कि जिनने चाहा
अपनी बोली में बुलवाना
अंधे को कहता था अंधा
काने को कहता था काना
बाबा के जाने पर जाना।।

आम आदमी होकर बाबा
ख़ास भूमिका निभा रहा था
धन मद के फूले फुग्गों पर
शब्द सूचिका चुभा रहा था
जहाँ ढोल दिखते थे उनकी
पोल खोलकर रख देता था
नकली वज़नदार गरिमा का
हल्का वज़न तौल देता था
कभी नहीं बख्शा इन उनको
जिन जिनने ओछापन ताना।
बाबा के जाने पर जाना।।

सदा व्यक्त करता था बाबा
सघन वेदना जन गन मन की
भरता था गिरिजन के अंदर
सघन चेतना अपनेपन की
निश्छल ममता का गायक था
गायक था पीड़ित समाज का
चलता फिरता काव्य संत था
चिंतक था आर्थिक सुराज का
कभी राजमद में न फँसा वह
कभी न मिथ्या को सन्माना।
बाबा के जाने पर जाना।।

उसको देख लगा करता था
मानों कृषक खेत में लौटा
या कि कारखाने से कोई
श्रमिक अभी पाली से छूटा
या कि डाकिया द्वार हमारे
मानवता का खत लाया हो
या कि कोट में भरकर कोई
समता की औषधि लाया हो
जन आकांक्षा का वाहक था
जन दीपक का था परवाना।
बाबा के जाने पर जाना।।

भाषा के बिरवा को उसने
नई व्यंजना से पनपाया
तरह-तरह की कलम लगाकर
उसे फूल फल से गमकाया
जो भाषा दी उसने हमको
यह भाषा युग की भाषा है
यह भाषा देखे का लेखा
यह यथार्थ की अभिलाषा है
इस भाषा का काव्यपीठ था
इसका था सर्जक दीवाना।
बाबा के जाने पर जाना।।

24 जुलाई 2006

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